
महान
बहुत बहुत स्वागत है आपका हम आपके लिए लाये हैं एक ऐसा कार्यक्रम जिसका नाम है महान। जी हां मित्रों देश की महानता में योगदान देने वाले महापुरुषों और उनके जीवन की महान घटनाओं का ज़िक्र करेंगे अपने इस कार्यक्रम में जिसका नाम है महान। इस कड़ी में आज हम चर्चा करेंगे नेताजी सुभाषचंद्र बोस के जीवन पर।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अनछुए पहलुओं के विषय में
दोस्तों नेताजी सुभाषचंद्र बोस का नाम लेते ही हमारे शरीर का रोम रोम कम्पन करने लगता है। हम सभी के अंदर एक इच्छा शक्ति जागृत होती है कि काश उस समय हम भी नेता जी के साथ जुड़े होते। आज हम जानेंगे नेता जी के अनछुए पहलुओं के विषय में ।
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नेता जी आजीवन संघर्ष करते रहे लेकिन स्वतंत्र भारत में वह सम्मान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था। इस वर्ष सरकारी प्रयास से इंडिया गेट के पास जॉर्ज पंचम के स्थान पर नेताजी की प्रतिमा स्थापित हो रही है। नेताजी के लिए हम सभी भारतीयों की यह भावभीनी श्रद्धांजलि होगी।
दोस्तों हम सभी जानते हैं कि नेताजी का पूरा नाम था नेता जी सुभाष चन्द्र बोस।
जी हां मित्रों 23 जनवरी 1897 का वह महान दिन जब उड़ीसा के कटक में माता प्रभावती देवी और पिता जानकी नाथ बोस के परिवार में नेता जी का जन्म हुआ। पिता पेशे से वकील और माता साधारण गृहणी की नौवीं सन्तान थे सुभाष चन्द्र बोस, नेता जी बचपन से ही क्रांतिकारी विचारधारा के थे। 1902 से 1912 तक की प्राथमिक शिक्षा मिशनरी के यूरोपियन स्कूल कटक में शिक्षा ग्रहण की। उसके बाद प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश मिला। वहां नेता जी ने फिलॉसफी में स्नातक उत्तीर्ण किया।
प्रेसिडेंसी कालेज से ही इनके मन में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की भावना जगी। 1916 में नेता जी प्रेसिडेंसी कॉलेज के अध्यक्ष चुने गए थे। दरअसल हुआ यों कि उस समय भारत में जातिवाद अपने चरम पर था। उसी समय एक अंग्रेज प्रोफेसर भारतीय छात्रों से बड़ी घृणा करता था। वो भारतीय छात्रों को अक्सर प्रताड़ित करता ये बात नेता जी तक पहुंच गयी। फिर क्या था नेता जी ने विरोध प्रदर्शन किया पहली बार नेता जी ने अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों को एकत्र किया। बाद में उस प्रोफेसर ने सभी छात्रों से माफी मांगी। इस घटना से वह प्रोफेसर और वहां के प्रिंसिपल सुभाष से चिढ़ गये जिससे 1916 में ही सुभाष बाबू को कॉलेज से निकाल दिया गया।
नेता जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे स्वामी विवेकानंद और अरविंदो घोष को अपना आदर्श मानते थे। कटक वापस लौटे तो उस समय हैजा नामक बीमारी ने तांडव मचा रखा था। लोगों को असहाय मरता देखकर उनके मन मे बड़ी निराशा हुई उन्होंने यह निश्चय किया कि इन परिस्थितियों को वो बदल कर रहेंगे। 1916 से 1919 की पढ़ाई इन्होंने स्कॉटिश चर्च कॉलेज से पूरा किया। पढ़ाई पूरी करने के बाद इनके बड़े भाई शरत चन्द्र बोस और पिता जी के कहने पर नेता जी लंदन चले गये और 1920 में आई सी एस की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया।
उधर गांधी जी भारत में असहयोग आंदोलन चला रहे थे। उस आंदोलन से प्रेरित होकर नेता जी ने अंग्रेजों की गुलामी को न स्वीकार करते हुए आई सी एस की नोकरी छोड़ दिया। 1923 में इन्हें अखिल भारतीय युवा कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया। देश को आजाद कराने का एक जज्बा उन्होंने अपने दिल में पाल रखा था। जिसके कारण उन्हें लगभग 11 बार जेल की सजा हुई। 1925 में जब वे मांडले जेल में थे तब उन्हें कोई भयंकर रोग हुआ जिसके कारण इन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। उसी बीच नेता जी के राजनैतिक गुरु चितरंजन दास की मृत्यु हो गयी जिससे नेताजी को बहुत बड़ा धक्का लगा।

1928 में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता का अधिवेशन हो रहा था। उस अधिवेशन की जिम्मेदारी सुभाष चन्द्र बोस को सौंपी गई। वहीं से नेताजी के अंदर नेतृत्व का गुण आ गया। इसी बीच 1930 मे गाँधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ किया। जिसके तहत कोलकाता की कमान सुभाष चन्द्र बोस को सौंपी गयी। सुभाष चन्द्र बोस ने कोलकाता में सविनय अवज्ञा आंदोलन का नेतृत्व किया। जिसके चलते अंग्रेजों ने एक बार फिर नेता जी को जेल भेज दिया। जेल में रहते हुए भी 1930 में नेता जी कोलकाता के मेयर चुन लिये गये।
बार बार जेल जाने से नेताजी को टीबी रोग हो गया जिसका इलाज करवाने के लिए वे योरोप चले गए। 1933 से 1936 तक योरोप में रहे। उसी दौरान एमिली से इनका परिचय हुआ औऱ 1937 में एमिली से विवाह करके भारत आ गये। जिनसे इनकी पुत्री अनिता बोष का जन्म हुआ। 1938 में हरिपुरा में कॉंग्रेस के अधिवेशन में कॉंग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। अध्यक्ष बनने के बाद नेताजी सेना और संगठन की बातें उठाने लगे। नेता जी का मत था कि भारत की आजादी के लिए एक सेना की आवश्यकता है। किन्तु ये बातें गांधी जी को हजम नहीं हुई और गांधी जी सुभाष बाबू को कॉंग्रेस के अध्यक्ष पद के अयोग्य घोषित कर दिये, लेकिन 1939 के अधिवेशन में सुभाष बाबू को एक बार पुनः कॉंग्रेस का अध्यक्ष चुना गया उस समय गांधी जी सुभाष चन्द्र बोस का विरोध करते हुए कांग्रेस के 12 सदस्यों के साथ कार्यकारिणी से त्यागपत्र दे देते हैं ऐसे में केवल 2 सदस्यों के साथ वो काम करने में असमर्थ थे अतः 1939 में कॉंग्रेस से त्यागपत्र देते हुए आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया। उसी समय द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो चुका था। जर्मनी ने पोलैण्ड पर आक्रमण कर दिया था। अंग्रेजी शासन सुभाष चन्द्र बोस को बहुत बड़ा खतरा समझता था इसीलिए 1939 में एकबार पुनः जेल भेज दिया गया। जहां उन्होंने अनशन शुरू किया जिससे इनकी तबीयत बिगड़ने लगी और 1941 में जेल से तो रिहाई हो गई लेकिन घर में ही नेताजी को नजरबंद कर दिया गया।
एक दिन अपने भतीजे शिशिर चन्द्र बोस की सहायता से घर वालों को बिना बताये घर से भाग निकले । कोलकाता से पेशावर होते हुए मास्को पहुंच गये। मास्को से रोम और रोम से होते हुए बर्लिन पहुंच चुके थे। इस सफर में इनको लगभग 50 दिनों तक काबुल में रुकना पड़ा जहाँ नेताजी एक गूंगे पठान का रोल कर रहे थे। इस बीच इनके पिताजी जी द्वारा दी गयी गोल्डेन वॉच किसी ने छीन ली लेकिन गूंगे बने रहने के कारण किसी से अपनी बात कहने में भी असमर्थ थे। इस तरह इनको बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ा। इस बीच मास्को में नेताजी की मुलाकात स्टालिन से हुई जिनकी मदद से रोम होते हुए बर्लिन पहुंच गये, जहां उनकी मुलाकात हिटलर से हुई जहां भारत की आजादी के लिए हिटलर का सहयोग मांगा।
1941 में विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी लगातार जीत हासिल कर रहा था वहीं ब्रिटेन पराजित हो रहा था। उस समय जर्मनी में लगभग तीन से चार हजार भारतीय युद्ध बंदी थे जिनसे नेताजी सुभाषचंद्र बोस की मुलाकात होती है। उन युद्ध बंदियों को नेताजी सम्बोधित करके भारत की आजादी के लिए तैयार कर लिये। इस विषय पर नेताजी ने हिटलर से बात करके उन युद्ध बंदियों को आजाद करवा लिया। हिटलर तो उस समय जीत की मद में था फिर भी उसने सहयोग का वादा किया और जापान से मदद लेने में सहयोग भी किया। क्योंकि उस समय जापान सिंगापुर तक पहुंच चुका था इसलिए हिटलर की सलाह नेताजी सुभाषचंद्र बोस को पसंद आ गयी। हिटलर जापान से सहयोग के लिए प्रमुख भूमिका में था।

हिटलर की सहायता से ही यू बोट नामक पनडुब्बी द्वारा नेता जी मेडागास्कर तक पहुंच गये, जहां से जापान तक की यात्रा जापान के सहयोग से पूरी होती है। 1942 में जापान के प्रधानमंत्री तोजो ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस को मदद के लिए आश्वासन दिया। एक बार पुनः आई एन ए का पुनर्गठन नेता जी ने किया। सर्वप्रथम आई एन ए जिसे आजाद हिंद फौज कहा जाता है का गठन कैप्टन मोहन सिंह ने किया था। यह भी एक भारतीय युद्ध बंदी थे। क्योंकि उस समय ब्रिटिश सेना में भारतीयों को ही रखा गया था और युद्ध के लिए इनको ही भेजा जा रहा था अतः युद्ध बंदियो में भारतीयों की संख्या सबसे ज्यादा थी। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के लिए यह एक सुंदर मौका था और जापान व जर्मनी में भारतीय युद्ध बंदियों को एकत्रित करके आजाद हिंद फौज को खड़ा कर दिया। कैप्टन मोहन सिंह ने आई एन ए में लगभग तीस हजार सैनिकों की भर्ती करते हैं लेकिन कैप्टन मोहन सिंह की ताकत बढ़ती देखकर जापान के प्रधानमंत्री तोजो को घबराहट होने लगती है और जापान इनको पुनः बंदी बना लेता है। इस बीच रास बिहारी बोस आई एन ए का नेतृत्व करते हैं। इसीलिए इतिहासकार रास बिहारी बोस को आई एन ए का जनक मानते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि कैप्टन मोहन सिंह ने आई एन ए का गठन किया औऱ रास बिहारी बोस उसकी देखभाल कर रहे थे। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व ने आई एन ए में एक बार पुनः जोश भर दिया। यानी हम कह सकते हैं कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आई एन ए का पुनर्गठन किया जिसमें भारतीय युद्ध बंदियों को शामिल किया गया था। उस समय लगभग सत्तर हजार सैनिकों को एकत्र करने में नेताजी सफल हुए।
1943 में सिंगापुर में सुभाष चन्द्र बोस के द्वारा अस्थायी आजाद हिंद सरकार बनायी गयी। उधर अंडमान निकोबार द्वीपसमूह पर जापान कब्जा कर लिया जिसे बाद में सुभाष चन्द्र बोस को सौप दिया गया। उन द्वीपों का नाम नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने शहीद और स्वराज द्वीप रखा। जिसे आजाद हिंद सरकार का प्रान्त घोषित कर दिया।
6 जुलाई 1944 को रंगून से आजाद हिंद रेडियो से उन्होंने गाँधी जी को राष्ट्रपिता कह कर सम्बोधित किया। महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता की उपाधि देने वाले नेताजी सुभाषचंद्र बोस प्रथम व्यक्ति थे।रेडियो पर सम्बोधन करते हुए नेताजी ने कहा,”राष्ट्रपिता आजादी की अंतिम लड़ाई में हमें आशीर्वाद दीजिए”।
इसके बाद बर्मा से होते हुए कोहिमा और इम्फाल के रास्ते गंगा के मैदान में पहुंचने की योजना नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने बनाया था। अभी तक तो परिस्थितियां नेताजी के पक्ष में थी लेकिन 1944 के अन्त से परिवर्तन शुरू हो जाता है। जापान जर्मनी और इटली जो ब्रिटिश सेना से जीत रहे थे उनका बुरा दौर शुरू हो गया। अब ब्रिटिश सेना जीतने लगी। अप्रैल 1945 में हिटलर ने आत्महत्या कर लिया और इटली के मुसोलिनी की हत्या हो गयी।
उधर जापान का सबसे बुरा दिन आ गया जब 6 और 9 अगस्त को नागा साकी और हिरोशिमा पर अमेरिका ने परमाणु बम दागे। परिणाम स्वरूप जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया। उस समय नेताजी सुभाषचंद्र बोस टूट से जाते हैं और आई एन ए को डिसमिस करने की घोषणा कर दी । उस समय 70 हजार सैनिकों के लिए बहुत बड़ा आघात था क्योंकि जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस बर्मा में थे तो नेताजी के कहने पर महिलाओं ने अपने गहने आजाद हिंद फौज के लिए दे रही थीं। ऐसे में आजाद हिंद फौज के डिसमिस का फैसला बहुत ही घातक सिद्ध हुआ।
18 अगस्त 1945 का वह सबसे बुरा दिन था जब नेताजी ताइवान से जापान जा रहे थे। तभी उनका विमान क्रैश हो गया और नेताजी एक रहस्य बन गए। नेताजी की यह विमान दुर्घटना कैसे हुई इसकी पुष्टि आज तक नहीं हो सकी और नेताजी की मृत्यु एक रहस्य ही रह गई।
नेताजी की मृत्यु की गुत्थी सुलझाने के लिए तीन कमेटी गठित की गयी। 1955 में शहनवाज कमेटी, 1970 में खोसला कमेटी औऱ 1999 में मुखर्जी कमेटी का गठन हुआ। दो कमेटी नेताजी की मृत्यु की पुष्टि करती हैं लेकिन मुखर्जी कमेटी की जांच में यह पता चलता है कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान में किसी तरह का कोई विमान हादसा हुआ ही नहीं था। तो आखिर नेताजी सुभाषचंद्र बोस आखिर गये कहां?
नेता जी के बारे में बहुत सी भ्रांतियां भी फ़ैली थी सच्चाई क्या थी कोई नहीं जानता था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु अभी तक एक रहस्य ही बनी है।
ऊपर का चित्र बस्ती जिले में गौर स्टेशन के पास सुमही नामक स्थान का है। यह एक आश्रम है जहां पर नेताजी जैसे एक साधू थे। ऐसा माना जाता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जब यह बात पता चली तो रातों रात उस साधू को न जाने कहाँ गायब कर दिया गया। सुबह गांव वालों को वह साधू दिखाई नहीं दिया।गांव वालों के कथनानुसार वह साधू आम इंसान जैसे नहीं थे। काफी लम्बे चौड़े कद काठी वाले थे। उनका सिर भी बहुत बड़ा था इसीलिए लोग उनको नेता जी मानते थे।
कोलकाता में कोई गुमनामी बाबा थे जिनको सुभाष चन्द्र बोस माना गया।
इसी तरह बाबा जय गुरुदेव ने खुद को सुभाष चन्द्र बोस बताया था।
आजाद हिंद फौज के ही एक सैनिक जिनका नाम था सालिक सिंह का कहना था कि नेताजी जिन्दा हैं और सीतापुर में एक आश्रम में रहते थे। वो अक्सर घोसी से सीतापुर जाते थे नेताजी से मिलने।
नेताजी के बारे में बहुत सी किवदंती है लेकिन हम अपनी तरफ से किसी भी किवदंती की पुष्टि नहीं करते हैं।प्रश्न यह उठता है कि नेताजी के पास एक दृढ़ इच्छाशक्ति थी फिर अगर वह जीवित थे तो इतनी गुमनामी में कैसे रह सकते थे?
नेताजी सुभाषचंद्र बोस की बातों का आम जनता पर बहुत असर पड़ता था। इस कार्य में उनके नारे बहुत प्रभावशाली थे। उन्होंने जय हिंद का नारा दिया। फिर एक नारा दिल्ली चलो यह भी आम जनता को प्रभावित किया।लेकिन जो सबसे अधिक प्रभावी रहा वो नारा था तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा। इस नारे पर माताओं ने अपने बेटों को देश के नाम पर दान कर दिया। औरतें अपने जेवर गहने देश की आजादी में नेताजी को समर्पित कर देती थीं। यह आकर्षण था नेताजी की आवाज में।
आज के एपिसोड में इतना ही अगले एपिसोड में फिर मुलाकात होगी इसी कार्यक्रम में जिसका नाम है महान।
रिपोर्ट: पंकज विश्वकर्मा
अदभुत बस्ती